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स्वाधीनता संदेश और हमारी साहित्यिक विरासत

द चेतक न्यूज

राजीव झा : हमारे देश का स्वाधीनता संघर्ष शुरू से यहाँ के समाज के विभिन्न वर्गों और तबकों की व्यापक भागीदारी पर आधारित एक ऐसा जनांदोलन रहा जिसका लक्ष्य भारत को ब्रिटिश शासन से आजादी दिलाने के साथ यहाँ के शासन, समाज और संस्कृति को लोकतांत्रिक आदर्शों के अनुरूप स्थापित करना था।

स्वातंत्र्योत्तर काल में भारतीय जनमानस और इसके जीवन संघर्ष की प्रमुख प्रवृत्तियों की पहचान भी इसी प्रसंग में समीचीन है। हमारा देश संसार का एक विशाल राष्ट्र है और भारतीयता की अजस्र धारा अपने प्रवाह में यहाँ के विभिन्न धर्मों, जातियों और वर्गों के लोगों के जीवन को आत्मसात करती हुई अपनी इस सुदीर्घ यात्रा में लोकतंत्र को यहाँ निरंतर सशक्त और जीवंत रूप प्रदान करती रही है।

इस काल में हमारा समाज कई सकारात्मक बदलावों को प्रकट करता सामने आया है, भारत एक राष्ट्र के रूप में और ज्यादा संगठित हुआ है और यहाँ अपने मत मतांतरों में हम एक दूसरे को जानने समझने में एक दूसरे के काफी करीब आये हैं। भारतीय संस्कृति अपने जीवन के आत्मीय तत्वों से सारे संसार को निरंतर अभिभूत करती रही है और आत्मीय प्रेम की यह डोर समग्र भारतवासियों को एकमेव कुटुंब का रूप प्रदान करे यह स्वाधीनता का पहला सच्चा संदेश है।

भारत समृद्ध भाषा – साहित्य परंपरा का देश है, हिंदी इस देश की जनभाषा है, सदियों से कबीर और तुलसी का काव्य स्वर यहाँ के समस्त जनमानस को सदाचार उच्च चिंतन और कर्म की भावना से जीवन को अनुप्राणित करता मनुष्य के मनप्राण को हर तरह की संकीर्णता की जगह उदारता की सीख देता रहा है।

आधुनिक काल में यथार्थवाद के जरिए प्रेमचंद ने समाज में मानवीय जीवन की विसंगतियों को अपनी रचनाओं में खास कर चित्रित किया, स्वाधीनता के संदेश को साहित्य में इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए और यह इसके लिए हम सबको गहरे आत्मावलोकन से गुजरना होगा। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का जीवन स्वाधीनता के इसी संदेश को चरितार्थ करता है। हम सब ऐसे साहित्य के सृजन में अग्रसर हों जो हमें सबल बनाये और हर तरह का सामर्थ्य प्रदान करे, देश की गुलामी हमारी कमजोरी का प्रतिफल थी और इसलिए आत्मनिर्भरता स्वाधीनता का दूसरा बड़ा संदेश है, आइए हम देश और समाज के नवनिर्माण का संकल्प करें फिरकापरस्ती, भ्रष्टाचार और समाज में प्रचलित नयी पुरानी अनैतिक बातें इनसे कारोबार हमारे देश और इसके स्वाधीनता संदेश को चुनौती देते प्रतीत होते हैं।

गाँधी जी और उनके बाद जयप्रकाश नारायण ने देश का नवनिर्माण और इस अनुरूप यहाँ चतुर्दिक रचनात्मक परिवर्तन इनको स्वाधीनता का सच्चा संदेश कहा था, इसमें भारतवासियों की समग्र भागीदारी अपेक्षित है और यह हम सबकी आपसी एकजुटता और भागीदारी से संभव है।

भारत गाँवों का देश है और यहाँ की अधिकांश आबादी गाँवों में रहती है, अब समाज में यहाँ के वंचित तबके के लोगों की भागीदारी से अब हमारा समाज पहले की तुलना में ज्यादा मजबूत हुआ है। साहित्य में दलितवाद और नारीवाद को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए, साहित्य संस्कृति और कला की दुनिया में लोकतंत्र का समावेश हमारी स्वाधीनता की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

स्वाधीनता का संदेश संकट के काल में देश के जनमानस को धैर्य और साहस के साथ जीवन में आस्था को बनाये रखने का संदेश देता है। निराला की कविताएँ इस दृष्टि से प्रासंगिक हैं और मुक्तिबोध की कविताएँ भी गढ़ और मठ इनको तोड़ने का आह्वान करती साहित्य में स्वाधीनता की नयी दिशा के बारे में चिंतन के लिए हम सबको उन्मुख करती हैं।

भारत की संस्कृति प्राचीन काल से मनुष्य की चेतना को उतिष्ठत जाग्रत का संदेश देती रही है, आज इसी अनुरूप हमें समाज से तमाम तरह के भेदभाव को जड़मूल से मिटाने के लिए आगे आना होगा। यह स्वाधीनता का सच्चा संदेश है, अपने अधिकारों को पाकर ही हम लोकतंत्र को मजबूत बनाएँगे और तभी देश की आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व अर्पित करने वाले देश के सपूतों का सपना भी साकार होगा।

भारतीयता की अवधारणा व्यापक है और कश्मीर से कन्याकुमारी तक राष्ट्रीयता की इस प्रवाहित अंतर्धारा में सारी धरती और इसके लोगों को यहाँ कुटुंब कहा गया है, भारत का स्वाधीनता संघर्ष संसार के समस्त लोगों को सामाजिक राजनीतिक गुलामी और उत्पीड़न अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा देता है। गाँधी जी विश्वमानव थे और उनके जीवनादर्शों को अपनाकर ही हम स्वाधीनता के संघर्ष को साकार कर सकते हैं।

हमारी स्वाधीनता सदैव सहिष्णुता को जीवन का सच्चा पाठ बताती रही है, अपनी आपसी वैमनस्यता कटुता को भुलाकर एक साथ चलकर ही इस देश के लोग विकास के पथ पर अग्रसर होंगे। आतंकवाद नक्सलवाद को हमें सर्वसम्मति से नकारना होगा और एकजुट होकर अपनी कठिनाइयों से उबरने के लिए कृतसंकल्प होना होगा, यह स्वाधीनता का सबसे प्रासंगिक संदेश है।

हमारे राष्ट्र की स्वाधीनता जनता और सरकार इन दोनों को समान रूप से देशसेवा का महती दायित्व प्रदान करती है और साहित्य अपनी मीमांसा में यथार्थ के आईने में व्यापक विमर्श को प्रस्तुत करता है। इसके रचनात्मक पाठ की प्रस्तुति ही साहित्य है और रेणु से लेकर आज के दौर के तमाम लेखक इस दायित्व के निर्वहन की चुनौती को अपने लेखन में समेटते रहे हैं, यह हस्तक्षेप जारी रहना चाहिए।

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