पिछले दिनों हरियाणा में एक पुलिस अधिकारी की खनन माफियों द्वारा हत्या की पीड़ादायक खबर आई. मीडिया में खूब चर्चा रही कि खनन माफियाओं के हौसले इतने बढ़े हुए हैं वे डीएसपी स्तर के वरिष्ठ अधिकारी को भी अपनी गाड़ी के नीचे रौंद देने से नहीं घबराते. कुछ पुराने मित्रों, जिनमें पत्रकार भी थे, से बात हो रही थी. उसमें भी इस घटना की चर्चा निकल पड़ी. एक ने हाल में आई किसी फिल्म का भी जिक्र किया जिसमें शायद सोने के खदानों में माफियों की दहशत को दर्शाया गया है.
इन चर्चाओं के बीच 2004 की एक घटना मेरे दिमाग में किसी फिल्म के रील की तरह घूम गई. पहाड़ों में न जाने कब से होते आ रहे बेइंतहा जुल्म के बीच पत्थरों का सीना चीरकर निकली एक प्यारी सी बच्ची देवली की याद आ गई. देवली का साहस सचमुच उस जीवट बीज जैसा था जिसके संकल्प के आगे पहाड़ झुक जाते हैं, चट्टानों का सीना चीरकर जिसके अंकुर फूटते हैं.
हरियाणा के भिवानी जिले की चरखी दादरी की पत्थर की खदानों में राजस्थान के सैकड़ों आदिवासियों को कई पुश्तों से गुलाम बनाकर रखा गया था. वे खदानें ही उनके लिए पूरी दुनिया थीं. जीना-मरना, शादी-ब्याह, बाल-बच्चे उनका सबकुछ वहीं पर था. खदान का मालिक उनका अन्नदाता, आश्रयदाता और उनके जीवन का मालिक था. वह जब जिसे चाहे अपने बिस्तर पर खींच ले, जिसे चाहे ऊंची पहाड़ी से धकेलकर मार दे. खदान मालिक गुलामों के शादी-ब्याह भी आपस में करा दिया करते थे.
मुझे सूचना मिली थी कि इन खदानों में आदमी-औरतों, बच्चों-बूढ़ों को मिलाकर करीब 40-45 लोग हैं जिन्हें कई पीढ़ियों से गुलाम बनाकर रखा गया है. वह खदान प्रदेश के रसूखदार दबंग नेता की थी. इसलिए जब मैंने अपने कुछ लोगों से उस खदान में एक रेस्क्यू ऑपरेशन की चर्चा की तो एकबारगी कई लोग सहम गए. लेकिन मैं अपने को खुशकिस्मत मानता हूँ कि मुझे निडर और जुझारू नवयुवकों का हमेशा साथ मिला है.
पिछले कई अभियानों में माफियाओं के हमले में, मैं और मेरे कई साथी बुरी तरह चोटिल हुए थे. इसलिए हम इस बार ज्यादा चौकन्ने थे. इस बार तो सामना माफिया और राजनीति के गठजोड़ के साथ होना था, तो जोखिम भी ज्यादा था. कुछ साथियों को पहले उन खदानों की रेकी के लिए भेजा. वे कई दिनों तक खदानों के चक्कर लगाते रहे. एक शिफ्ट से दूसरी शिफ्ट के बीच बंदूकधारी गार्ड कितनी देर के लिए नहीं होते, किस समय ट्रक या ट्रैक्टर की सबसे अधिक आवाजाही रहती है, किस समय खदान में हलचल बहुत कम रहती है, ये सारी सूचनाएं उन्होंने जुटा लीं. उन्हीं सूचनाओं के आधार पर हम छापेमारी की योजना बनाकर पहुंचे.
हम किराए की कुछ गाड़ियां और एक ट्रक लेकर गए थे. किसी को हमारी भनक न लगे इसके लिए हमने अपने समूह को बारात का रूप दे दिया. हमारी गाड़ियां बारात का हिस्सा लगे इसके लिए उनपर झूठमूठ के ‘रनबीर संग गीता’ के बैनर टांग दिए गए जैसा शादियों में होता है. टीम में शामिल सभी ने बारातियों जैसे कपड़े भी पहन रखे थे. हमने मौका देखकर करीब 40 लोगों को छुड़ा लिया और ट्रक तथा गाडियों में बिठाकर जितना तेज हो सकता था, वहां से भागे.
कुछ बच्चे उस समय आधी नींद में थे और उन्हें ट्रक में चढ़ाना मुश्किल हो रहा था. मैंने उन्हें अपनी कार में बिठा लिया. आठ-दस बच्चे मेरी गाड़ी में थे. मुझे उनकी सुरक्षा की चिंता हो रही थी कि कहीं आगे लठैत मिल गए तो क्या होगा. उस दिन ईश्वर प्रकट होकर पूछता कि तुम्हें क्या चाहिए तो मैं घबराहट में शायद यही मांग बैठता कि हमें पलक झपकने भर की देर में दूर दिल्ली सुरक्षित पहुंचा दो.
खैर, जब हम खदानों से काफी दूर निकल आए तो मुझे ध्यान आया कि बच्चों को तो नींद खुलते ही भूख लगती है. गाड़ी में पीछे वाली सीट के नीचे एक थैले में कुछ केले पड़े थे. मैंने एक बच्चे से कहा कि थैले में फल रखे हैं, उसे आपस में बांट लो. ‘फल’ यह उसके लिए बिल्कुल अनसुना शब्द था. मैंने गाड़ी चलाते हुए उसे थैले का इशारा किया और उसमें रखे केले निकालकर देने को कहा.
मेरी बगल वाली सीट पर छह सात साल की एक चुलबुली सी बेटी बैठी थी. मैंने उसके हाथ में केले का गुच्छा देकर कहा कि इसमें से दो-दो केले सबको बांट दो. बच्चे केले को हैरानी से देखने लगे. उस दिन उन बच्चों के बीच की बात, करीब ढाई दशक बाद भी मुझे अक्षरशः याद है. भूल भी कैसे सकता हूँ उन शब्दों को, वे मेरे दिमाग में अक्सर कौंधते हैं. उन शब्दों ने मुझे कई रात सोने नहीं दिया.
बच्चे केले को उलट-पुलटकर देखते हुए आपस में बातें कर रहे थे. उन्हें मारवाड़ी जबान आती थी. एक बच्चे ने कहा, ‘यो प्याज तो हमणे कोणी देखो.’ दूसरे ने कहा, ‘यो तो आलू भी कोणी.’ वे कभी उसे सूँघते, कभी दबाकर देखते. मैंने उनसे कहा कि यह आलू-प्याज नहीं है, फल है. मीठा केला, तुम्हें भूख लगी होगी, इसे खा लो. मैंने कई बार कहा तो कुछ बच्चों ने बिना छीले उसे काटकर खाना शुरू कर दिया. छिलका नहीं भाया तो वह नाक मुँह सिकोड़ने लगा. मैंने कहा कि खिड़की से बाहर थूक दो. वह पल आजादी और गुलामी के बीच की उस गहरी खाई से मेरा साक्षात्कार कराने वाला था जिसे सिवाए उनके कोई महसूस नहीं कर सकता जिनके लिए अंग्रेजों के चंगुल से भारत के छूटने का न कोई अर्थ था और न ही देश के संविधान का कुछ हासिल. जा तन लागे, सो तन जाने.
मैंने गाड़ी धीमी की और अपनी कोहनी से स्टीयरिंग को संभालते हुए उन्हें केला छीलकर दिखाया. एक केला छीलकर मैंने उस बच्ची को दिया जो मेरी बगल में बैठी थी. उसने खाया और बड़ी खुश हुई. वह उसे ‘मीठा प्याज, मीठा प्याज’ कहती चाव से खा गई. उसके जीवन की सबसे बड़ी विलासिता शायद प्याज खाना ही रहा हो. इसलिए वह हर स्वादिष्ट चीज को प्याज से तोलती थी.
कृतज्ञता और प्रेम के भाव से भरी उस बच्ची, जिसे मैंने देवली नाम दिया था, ने मारवाड़ी बोली में पूछा- “क्यूं रे! तू पैले कोणी आयो (तुम पहले क्यों नहीं आए)?” उसने बिना कहे वह सारी पीड़ा कह दी जिससे मैं बहुत बाद में परिचित हुआ. उसके एक भाई ने दवाई के अभाव में कुछ महीने पहले ही उसके सामने दम तोड़ दिया था. उसके पिता की चंद दिनों पहले खूब पिटाई के बाद मालिकों ने जलती बीड़ियों से इसलिए दागा था क्योंकि उसने अपने मालिक से मिन्नत की थी कि वे उसकी पत्नी का यौन शोषण न करें. उसकी आँखें कह रही थीं कि यदि मैं पहले आया होता तो उसे उन सारी यातनाओं से उसे दो-चार न होना पड़ता. उसका खामोश चेहरा मुझे कोस रहा था कि आखिर दिल्ली के इतने पास एक नरक के द्वार पर धक्के मारने में, आजादी के पांच दशक क्यों गंवा दिए. उसकी सूखी आँखें पूरी मानवता से ऐसे ढेर सारे सवाल कर रही थीं. मेरे ऊपर घड़ों पानी गिर रहा था.
उस प्यारी बच्ची ने वह झूठा नाम देवली ही अपना लिया जो मैंने उसे, उसकी पहचान छिपाने के लिए दिया था. अब वही उसका आधिकारिक नाम है. देवली ने बाल आश्रम में रहकर पढ़ाई-लिखाई की. उसके बाद जोधपुर के अपने गांव में साक्षरता की अलख जगा रही है. कुछ लोगों के सहयोग से एक छोटा सा स्कूल खोला है जहां बच्चों को आरंभिक शिक्षा दी जाती है.
कुछ साल बाद उसने न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के एक कार्यक्रम में वंचित बच्चों का प्रतिनिधित्व किया था. अपनी पृष्ठभूमि बताने के बाद उसने दुनियाभर के नेताओं से तीखा सवाल किया, “ऐसी पृष्ठभूमि से आने के बावजूद मैंने जोधपुर के अपने गांव के अब तक 15 बच्चों का स्कूलों में दाखिला कराया है, आप तो इतने बड़े लोग हैं. चाहें तो क्या नहीं कर सकते. आप किसकी पुकार का इंतजार कर रहे हैं.” देवली जब बोलती है, सवाल करती है तब उसे देखते ही बनता है. मैं बड़े ध्यान से उसकी हर बात सुनता हूँ. ऐसा लगता है कि वह सवाल करती रहे, मैं, यह समाज, यह सिस्टम, उसे सुनकर शर्मसार होते रहें.
हमारी संस्था जब भी किसी बच्चे को बाल श्रम से मुक्त कराती है और मैं उस बच्चे से बातें करता हूँ, उनके शरीर और मन पर लगे घावों को देखता हूँ तो ऐसा लगता है मानो उन सबके अंदर से देवली मुझसे वही तीखा और शर्मसार करने वाला सवाल हर बार, बार-बार कर रही है, ‘क्यों रे! तू पैले कोणी आयो?’
इसके लिए न मैं किसी सिस्टम को, न किसी राजनेता को, न किसी सरकार, न पुलिस, न न्यायपालिका और न ही किसी और संस्था को दोषी ठहराना चाहता हूँ. अगर इसी तरह किसी के मत्थे सारा इलजाम मढ़कर चुप बैठ जाएं तो क्या बदल जाएगा? करोड़ों देवलियां हमारे इंतजार में बैठी हैं. हम सबमें क्षमता है, साहस है, सामर्थ्य है कि हम उन लाखों देवलियों को मुक्त करा सकते हैं. बस जरूरत है हमारे अंदर की उस करुणा को जगाने की.
मैं यह कहानी सुनाकर बस आपके भीतर की उसी करूणा को आवाज देने की कोशिश कर रहा हूँ.
(यह लेखक के निजी विचार है। कैलाश सत्यार्थी 2014 नोबेल पुरस्कार विजेता है व बचपन बचाओ आंदोलन व कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन के फाउंडर के साथ ही एक लेखक, पत्रकार, कवि व प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता भी है।)